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Best Shayari collections of Rajesh Reddy

मेरे दिल के किसी कोने में मासूम सा इक बच्चा ,
बड़ों की देख कर दुनिया बड़ा होने से डरता है.

सर क़लम होंगे कल यहाँ उनके, जिनके मुँह में ज़बान बाकी है.

आख़िरी ख़्वाहिश जो पूछी वक़्त ने, पहली ख़्वाहिश मुस्कुरा कर रह गई.

तुम हक़ीक़त को लिए बैठे हो तो बैठे रहो,
ये ज़माना है इसे हर दिन फ़साने चाहिएँ.

किसी दिन ज़िंदगानी में करिश्मा क्यूँ नहीं होता,
मैं हर दिन जाग तो जाता हूँ ज़िंदा क्यूँ नहीं होता; 

बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता,
जो बीत गया है, वो गुज़र क्यूँ नहीं जाता;
मिरी इक ज़िंदगी के कितने हिस्से-दार हैं लेकिन,
किसी की ज़िंदगी में मेरा हिस्सा क्यूँ नहीं होता;
ज़माने भर के लोगों को किया है मुब्तला तू ने,
जो तेरा हो गया तू भी उसी का क्यूँ नहीं होता.


ये न अश्कों का है न घाव का है, सारा क़िस्सा बस इक लगाव का है;
रो भी सकते नहीं ब-ज़ाहिर हम, मस्अला ग़म के रख-रखाव का है;
ज़िंदगी है तनी हुई रस्सी, खेल सारा इसी तनाव का है.

ह़ाल-ए-दिल ऐसे न हंस-हंसके सुना लोगों को, ये तिरे ग़म को किसी और का ग़म समझेंगे.
लोग तो लोग हैं ये कब तिरा ग़म समझेंगे, जितना समझाएगा तू उतना ही कम समझेंगे.

मैंने तो बाद में तोड़ा था उसे,
आईना मुझपे हंसा था पहले;
बाद में मैंने बुलंदी को छुआ, अपनी नज़रों से गिरा था पहले .

जाने कितने ग़म किसी गिनती में आए ही नहीं, हाय ! वो आँसू जो आँखों ने बहाए ही नहीं.

बैठे ही बैठे इक जगह इक और दिन गुज़र गया,
जाना तो था कहाँ-कहाँ लेकिन कहीं नहीं गए;
अह्द तो था बिछड़ते ही दुनिया को छोड़ देंगे हम,
तुम भी कहीं नहीं गए, हम भी कहीं नहीं गए.

अब तो ये आलम है,पलकें खोलते ही,
आँखों को हर मंज़र काटने लगता है;
मुफ़लिस बाप के घर से रुख़्सत होते समय, बेटी को हर ज़ेवर काटने लगता है;
दिन-भर सबके आगे झुकने वाला शख़्स, ख़्वाब में किस-किसके सर काटने लगता है.

त'आरूफ़ का कहाँ मुह़ताज हूँ मैं, मुझे दुनिया का हर ग़म जानता है;
कुछ उसके ज़ख़्म का अंदाज़ा कीजे, जो नश्तर ही को मरहम जानता है;
फ़िदा है आप अपने अक्स पर जो, वो ख़ुदको किस क़दर कम जानता है.

या रब ! ये तूने किसलिए काग़ज़ की नाव को, दरिया-ए-ज़िंदगी की रवानी में रख दिया;
क़तरा कहां का कौन से पानी में रख दिया, किरदार मेरा किसकी कहानी में रख दिया.

तिरे ही साथ रहना है बिछड़ कर भी हमें तो, वो तेरा फ़ैसला था, ये हमारा फ़ैसला है.

वो ही करते रहे चढ़ते हुए सूरज को सलाम,
जो किसी ढलती हुई शाम से वाक़िफ़ नहीं थे;
जब तलक हमने ज़रा नाम कमाया नहीं था, किसी तोहमत किसी इल्ज़ाम से वाक़िफ़ नहीं थे;
जो हमें आता था वो करने का मौक़ा न मिला, वो ही करते रहे जिस काम से वाक़िफ़ नहीं थे.

बोलने पर तो है मेरा इख़्तियार, अपनी ख़ामोशी को कैसे चुप कराऊँ.

अजनबियत वो कुछ इस तरह़ मिटा कर गया है,
अपनी तन्हाई मिरे साथ बिता कर गया है.

दिल को समझाता हूँ मैं, दिल मुझे समझाता है, वक़्त हम दोनों का बस ऐसे ही कट जाता है.

हम तो समझ रहे थे कि अख़्बार आ गया, पढ़ने लगे तो सामने बाज़ार आ गया.

यकजा कभी न हो सका मैं अपनी ज़ात में,
खुद को समेटने में बिखरता चला गया.

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